उदयपुर ,जो लोग ये शिकायत करते हैं कि उन्हें कहीं भी सुकून नहीं मिलता, वे गलत हैं। असली कारण यह है कि वे लोग सुकून या शांति की तलाश में हैं ही नहीं। वे चाहते हैं कि वे भीड़ से घीरे रहें, परेशानियों को खुद निमंत्रित करने की आदत भी उनकी ही होती है। जो लोग वाकई शांति की तलाश में हैं, वे भीड़ में भी एकांत खोज सकते हैं।

अगर हम वास्तविक शांति चाहते हैं तो हमें भीतर की ओर यात्रा करनी होगी। अपने अंदर मौजूद शांति को जगाना पड़ेगा, अपने मन को एकाग्र करना होगा। जब तक मन बाहर भटकेगा, शांति भीतर नहीं उतरेगी। मन एक जगह बैठ गया, वहीं से शांति की यात्रा शुरू हो जाएगी। हम भरी बाजार में भी एकांत का आभास पा सकते हैं, लेकिन समस्याओं और चिंताओं को औढऩे की हमारी आदत के कारण हम ऐसा कर नहीं पाते।

आज स्वामी विवेकानंद के जीवन के एक प्रसंग की ओर चलते हैं। विवेकानंद का वास्तविक नाम नरेंद्र था। वे बचपन से मेधावी रहे, ऐसा कहते हैं कि उनके साथ कोई दैवीय शक्ति भी थी। मन इतना एकाग्र था कि एक बार कोई चीज पढ़ ली या देख ली, तो फिर उसे अक्षरश: याद रखते थे।

कई लोग उनकी इस प्रतिभा के कायल थे। एक बार वे अपने एक विदेशी मित्र से मिलने गए। जिस कमरे में वे बैठे थे, वहां कुछ किताबें भी रखी थीं। स्वामी जी के मित्र को कुछ काम आ गया और वो थोड़ी देर के लिए बाहर चले गए। खाली समय देख विवेकानंद ने वहां पड़ी एक किताब उठा ली। वह किताब उन्होंने जीवन में पहले कभी नहीं पड़ी थी।

मित्र काम निपटाकर लौटा, तक तक उन्होंने किताब पूरी पढ़ ली। मित्र ने उन्हें परखने के लिए पूछा क्या वाकई पूरी किताब पढ़ ली है। विवेकानंद बोले हां, काफी अच्छी किताब है। उन्होंने उसकी व्याख्या प्रारंभ की। यह तक बता दिया कि किस पृष्ठ पर क्या लिखा है, कहां प्रूफ की गलती रह गई।

मित्र ने उनसे पूछा कि इतनी जल्दी किताब को पढ़कर याद कैसे रख लिया, जबकि वो तो अभी तक उसे पढऩे के लिए अपना मानस तक नहीं बना सका। वो अपने आप को एकाग्रचित्त करना चाहता है लेकिन ऐसा कर नहीं पा रहा।

विवेकानंद ने जवाब दिया कि मैं हमेशा अपने भीतर रहने का प्रयास करता हूं, अपने मन पर किसी चिंता या समस्या को हावी नहीं होने देता। जहां चाहता हूं वहीं शांति का आभास होता है। मन पर नियंत्रण कर लिया तो फिर कर भी शांति को खोजने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी।

 

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