सरकार के लिए पिछले कुछ हफ्ते अच्छे नहीं रहे हैं. हाल में इसके एक सीनियर मंत्री ने कहा कि 2014 में बीजेपी ने चुनाव जीतने के लिए जनता से झूठे वादे किए थे. यह साहब कुछ साल पहले पार्टी अध्यक्ष थे. पिछले कुछ हफ्तों में रफाल सौदे में अनिल अंबानी, आधार, धारा 377, सबरीमाला पर सुप्रीम कोर्ट के फैसलों, पेट्रोल-डीजल की ऊंची कीमतों, रुपए और शेयर बाजार में गिरावट और एक मंत्री पर सैक्सुअल हैरसमेंट के आरोप को लेकर भी सरकार को शर्मिंदगी उठानी पड़ी है.

गलतियों ने बीजेपी को दिया झटका

इसलिए केंद्र और बीजेपी दोनों बैकफुट पर हैं. इन मामलों से पार्टी की छवि पर तो दाग लगा ही है, उसकी नीतियों पर भी सवाल खड़े हुए हैं. अचानक इतनी गलतियों से सरकार की विश्वसनीयता को गहरा धक्का लगा है. विपक्ष मना रहा है कि 1989 में जिस तरह से बोफोर्स के चलते कांग्रेस की दुर्गति हुई थी, उसी तरह से आगामी चुनाव में रफाल विवाद से बीजेपी की मिट्टी पलीद हो जाए. विपक्ष के हौसले यूं ही बुलंद नहीं हैं.

यह तो बीजेपी के कट्टर समर्थक भी मानते हैं कि 2014 जैसा प्रदर्शन पार्टी 2019 में नहीं कर पाएगी. इसलिए अब बहस इस पर होने लगी है कि उसे 2019 में 272 (बहुमत के लिए जरूरी) से कितनी कम सीटें मिलेंगी. अगर स्थिति बहुत खराब रही तो उसे 272 से करीब 130 सीटें कम मिल सकती हैं. स्थिति बहुत अच्छी रही तो 50-60 सीटें कम. बेशक, राम मंदिर निर्माण से यह तस्वीर बदल सकती है. अगर कांग्रेस को 140-150 से अधिक सीटें नहीं मिलती है तो सबसे बुरी स्थिति में भी बीजेपी सबसे बड़ी पार्टी होगी. इसलिए राष्ट्रपति उसे सरकार बनाने का न्योता देंगे.

ऐसे में यह सवाल पूछना बनता है कि सरकार चलाने को लेकर संघ परिवार ने क्या सबक सीखे हैं? क्या बड़े गठबंधन सरकार की मजबूरी से उन गलतियों से बचा जा सकता था, जो वह 2014 के बाद से कर रहा है? यह बहुत हद तक इस पर निर्भर करेगा कि बीजेपी 272 से कितनी पीछे रहती है. अगर वह बड़े अंतर से पीछे रहती है तो उसे ज्यादा सबक की जरूरत पड़ेगी.

क्या संघ टोनी ब्लेयर का रास्ता चुनेगा?

इस संदर्भ में परिवार के तीन अंग- आरएसएस, बीजेपी और प्रधानमंत्री की अहमियत अधिक है. अगर मोहन भागवत की लेक्चर सीरीज की मानें तो लगता है कि आरएसएस ने भारत के राजकाज के कुछ अहम सबक सीखे हैं. उन्होंने कहा कि आरएसएस वह करने को तैयार है, जो ब्रिटेन में टोनी ब्लेयर ने लेबर पार्टी के लिए किया था यानी वह अपनी बुनियादी विचारधारा की समीक्षा के लिए तैयार है. 1995 में ब्लेयर ने लेबर पार्टी की समाजवाद के प्रति प्रतिबद्धता को चार्टर से हटा दिया था और इससे जनता में उसकी लोकप्रियता बढ़ी थी.

क्या बीजेपी और प्रधानमंत्री भी ऐसा करेंगे? आज मोदी के 2019 में प्रधानमंत्री बने रहने पर सवालिया निशान लग रहा है. मान लेते हैं कि उनके नेतृत्व में ही पार्टी चुनाव लड़ेगी क्योंकि उन्हें हटाए जाने पर बीजेपी की सीटें और कम हो जाएंगी. आखिर मोदी ने पहले कार्यकाल में शासन को लेकर कौन से सबक सीखे हैं? उनके गवर्नेंस स्टाइल की दो चीजें खास हैं. पहला, उन्होंने सेवाओं की डिलीवरी पर ध्यान दिया क्योंकि उन्हें लगता है कि इससे अधिक वोट मिलेंगे. दूसरा, गवर्नेंस को पीएमओ (प्रधानमंत्री कार्यालय) से चलाया गया क्योंकि इससे उन्हें पूरे प्रोसेस को कंट्रोल करने में मदद मिलती है.

मोदी पीएम से ज्यादा एक सीईओ

इसलिए मोदी प्रधानमंत्री से ज्यादा एक सीईओ रहे हैं. उनका पहला दायित्व यह था कि वह लोगों को भरोसा दिलाएं कि सरकार उनकी विरोधी नहीं है. इस मामले में वह अटल बिहारी वाजपेयी के बजाय इंदिरा गांधी जैसे साबित हुए हैं. इसलिए उन्हें सीईओ के रोल को कम और प्रधानमंत्री की भूमिका को बढ़ाना होगा.

सत्ताधारी पार्टी की आज यह छवि बन गई है कि राजनीतिक और प्रशासनिक पावर की बात हो तो वह नैतिकता की परवाह नहीं करती. वह निरंकुश है. उसके तौर-तरीकों से लोग डर गए हैं. बीजेपी को समझना होगा कि डराने-धमकाने की राजनीति अच्छी नहीं होती. आपको लग सकता है कि अनुशासन पर जोर देना डराना-धमकाना नहीं है, लेकिन यह पहले मुर्गी आई कि अंडा जैसा सवाल है.

संसद और मंत्रालयों ने जो संस्थाएं बनाईं, भले ही आज वे लड़खड़ा रही हैं, लेकिन संवैधानिक शक्तियों के तहत जो संस्थाएं बनी हैं, उन्होंने सत्ता की मनमानी पर अंकुश लगा रखा है. बीजेपी में डराने-धमकाने यह संस्कृति नई है. अगर पार्टी नेतृत्व निरंकुश सत्ता के हक में नहीं है तो उसे इसे रोकना होगा.

बीजेपी को निराशावाद और कड़वाहट ने जकड़ा

पहले बीजेपी में उदारवादी सोच रखने वाले नेता भी मुखर रहते थे, लेकिन अब पार्टी को इंदिरा गांधी के निराशावाद के वायरस और कड़वाहट ने जकड़ लिया है. इसलिए बीजेपी को आज जनता से वैसे ही विरोध का सामना करना पड़ रहा है, जैसा 1977 में इंदिरा गांधी को करना पड़ा था. यह बुरी खबर है क्योंकि 2014 में पार्टी ने भले ही अपने दम पर बहुमत हासिल किया था, लेकिन उसे सिर्फ 31 पर्सेंट वोट ही मिले थे.

इसलिए विपक्ष अगर सिर्फ हिंदी भाषी राज्यों की सभी सीटों पर मिलकर बीजेपी के खिलाफ संयुक्त उम्मीदवार उतार दे तो हवा बदल सकती है. क्या ऐसा होगा? क्या विपक्ष ऐसा करेगा? दिसंबर में राजस्थान और मध्य प्रदेश के चुनावी नतीजे आने के बाद इस सवाल का जवाब मिलेगा.

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