Image copyrightPTI

चूँकि भारतीय जनता पार्टी सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का वाहक होने का दावा करती है, इसलिए अगर उसकी राजनीति को सांस्कृतिक रूप से परिभाषित किया जाए तो उसके किसी पैरोकार को आप‌त्त‌ि नहीं होनी चाहिए.

दरअसल, इस समय यह सत्तारूढ़ दल अपने ही बनाये हुए जिस फंदे में फँसा हुआ है, वह उसकी सांस्कृतिक राष्ट्रवादी राजनीति की ही देन है.

गो-रक्षा इस पार्टी के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का प्रमुख आधार है, लेकिन उसके आधार पर हो सकने वाली गोलबंदी को पूरे देश में समान रूप से लागू करने के बजाय वह उसे केवल ग़ैर-भाजपा शासित राज्यों में ही आज़मा रही है.

गाय काटने के शक को लेकर होने वाली भीड़-हिंसा की घटनाएँ या तो उत्तर प्रदेश में हुई हैं या हिमाचल प्रदेश में. जबकि स्वयं भाजपा शासित गोवा के मुख्यमंत्री बाक़ायदा घोषित कर चुके हैं कि वे गोमांस खाने पर प्रतिबंध नहीं लगाएँगे, क्योंकि उनके प्रदेश की आबादी का एक प्रमुख हिस्सा गोमांस खाता है.

चूँकि भाजपा इस विषय में कुछ नहीं बोलती, इसलिए उसकी यह राजनीतिक चतुराई छिपी नहीं रह पाती.

भाजपा उत्तर-पूर्वी राज्यों में खाए जाने वाले गोमांस पर भी नहीं बोलती. इसी चतुराई का दूसरा हिस्सा यह है कि प्रधानमंत्री ने भी इस घटनाक्रम के ग़ैर-भाजपा राज्यों में सीमित होने का लाभ उठाया.

Image copyrightReuters

पहले तो दादरी की दर्दनाक घटना पर वे बोले नहीं, और जब उनकी सरकार पर दबाव पड़ा तो उन्होंने इस घटना की निंदा तो नहीं ही की, केंद्र सरकार को इन घटनाओं से अलग करके ज़िम्मेदारी लेने से भी इनकार कर दिया.

संघवादी ढाँचे की राजनीति खेलने की ऐसी मिसाल किसी प्रधानमंत्री ने पहली बार दी. अगर वास्तव में प्रधानमंत्री को दादरी की घटना अफ़सोसनाक लगी थी तो गृह मंत्रालय के ज़रिए उत्तर प्रदेश सरकार से उसकी तफ़सील पूछना और उस पर अधिक प्रभावी कार्रवाई का दबाव डालना पूरी तरह उनके अधिकार-क्षेत्र में है. वैसे भी वे उत्तर प्रदेश से सांसद हैं.

इस सांस्कृतिक फंदे को उसका ख़ास रूप साहित्यकारों की कार्रवाई ने दिया है. भारत के इतिहास में इतनी भाषाओं के मशहूर साहित्यकारों ने इतनी बड़ी संख्या में पहली बार प्रतिरोध-स्वरूप पुरस्कार वापस करके एक नयी मिसाल कायम की है.

Image copyrightunk

इस पर बहस की जा सकती है कि उन्हें ऐसा करना चाहिये था या नहीं, पर इसमें कोई शक नहीं कि उनका प्रतिरोध बेहद असरदार निकला. सरकार हिली हुई लग रही है. उसके और भाजपा के प्रवक्ता हर मंच पर अपना बचाव करते घूम रहे हैं.

मुश्किल यह है कि उनके पास इस सांस्कृतिक आक्रमण का उत्तर देने के लिये न तो सांस्कृतिक भाषा है और न ही तर्कों का सांस्कृतिक ढाँचा है. वे साहित्यकारों के मुक़ाबले राजनीतिक भाषा बोल कर काम चला लेना चाहते हैं.

दरअसल, साहित्यकारों की अंदरूनी राजनीति और उनके हिंदुत्व विरोधी विचारधारात्मक लगावों को सामने ला कर भाजपा उस मुद्दे की धार कुंद नहीं कर पा रही है जिसे पुरस्कार वापसी के क़दम से का़फी तीखापन मिल गया है.

Image copyrightUDAY PRAKASH FACEBOOK BBC IMRAN QURESHI ASHOK VAJPAYEE

हम सभी जानते हैं कि साहित्यकारों के कहने पर भाजपा के विरोध में कोई वोट देने नहीं जा रहा है. लेकिन, अकादमी पुरस्कारों की वापसी की घटना पूरे विश्व के सांस्कृतिक जगत में गूँज सकती है.

साहित्यकारों और कलाकारों का अपना एक नेटवर्क होता है. वैसे भी पुरस्कार वापिस करने वाले सभी साहित्यकार वामपंथी ख़ेमे के नहीं हैं. इनमें साहित्य की दुनिया में मार्क्सवाद के प्रभाव से जूझने वाले रचनाकार भी हैं.

Image copyrightAFP

सलमान रुश्दी के आवाज़ में आवाज़ मिलाने से आगे भी फ़र्क पड़ने वाला है. रुश्दी ने यह भी कहा है कि वैसे तो प्रधानमंत्री बड़े बातूनी (टाकेटिव) हैं, पर ऐसे मसलों पर उनकी चुप्पी गुंडई (ठगरी) को बढ़ावा दे रही है.

भाजपा को यह भी ध्यान रखना चाहिए कि मोदी की आर्थिक नीति का समर्थन करने वाले टिप्पणीकारों ने भी गोमांस पर होने वाली राजनीति पर चिंता जताई है.

अगर भाजपा और उसके समर्थनक संगठनों, जैसे बजरंग दल, गोरक्षा दल और हिंदू जागरण मंच, ने अपने कदम वापस नहीं खींचे तो यह सांस्कृतिक राजनीति दूरगामी दृष्टि से उन्हें मँहगी पड़ने वाली है.

 

sours- BBC HINDI

Previous articleहिन्दुस्तान जिंक के छःमाही वित्तीय परिणामों की घोषणा
Next articleACB ने थानेदार को थाणे में ही रिश्वत लेते हुए पकड़ा

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here