भारत के मुस्लिम हलकों में, संगठनों, अख़बारों और घरों में इन दिनों बस एक ही चर्चा है. क्या मोदी वाक़ई प्रधानमंत्री बन जाएंगे. और अगर मोदी प्रधानमंत्री बन गए तो मुसलमानों के प्रति उनका रवैया क्या होगा?
भारत में इस वक्त मुसलमानों के सामने सबसे बड़ा सवाल यही है कि वह चुनाव में किसे वोट दें. संभवतः यह पहला मौक़ा है जब भारत के मुसलमानों के सामने चुनाव में कोई स्पष्ट तस्वीर नहीं है.
एक तरफ़ कांग्रेस है, जिससे देश की बाकी जनता की तरह मुसलमान भी ज़्यादा ख़ुश नज़र नहीं आते हैं. और लोग यह मानने लगे हैं कि कांग्रेस को अपने इतिहास की सबसे बड़ी हार का सामना करना पड़ सकता है.
क्षेत्रीय दलों में एक लालू प्रसाद यादव हुआ करते थे, जो अपने बीजेपी विरोधी बयानों से मुसलमानों के करीब रहने की कोशिश करते थे. इस वक्त वह अपने राजनीतिक अस्तित्व की लड़ाई लड़ने में व्यस्त हैं.
भाजपा से दूरी
रही बात नीतीश कुमार की तो लगता है कि वह पहले से ही हार मान बैठे हैं. उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव की पार्टी के सत्ता में आने के बाद पिछले डेढ़ साल में छोटे-बड़े 50 से ज़्यादा सांप्रदायिक दंगे हो चुके हैं. मुज़फ़्फ़रनगर के दंगों के बाद मुसलमान मुलायम से पूरी तरह नाराज़ दिखते हैं.
बहुजन समाज पार्टी की मायावती की भूमिका बहुत सीमित रही है. दूसरी तरफ़ भारतीय जनता पार्टी की ओर से प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता देश भर में बढ़ रही है जबकि कांग्रेस के नेता राहुल गांधी बेअसर साबित हो रहे हैं. इससे मोदी का रास्ता और ज़्यादा साफ़ होता दिख रहा है.
मुसलमान भारतीय जनता पार्टी से हमेशा दूर रहे हैं. उनके दिमाग़ में बीजेपी की छवि मुसलमान विरोधी पार्टी की रही है. बीजेपी ने कभी अपनी इस छवि को दूर करने के लिए बहुत ज़्यादा कोशिश नहीं की है.
एक दौर में बीजेपी की यह नीति होती थी कि उसे मुसलमानों के वोटों की ज़रूरत नहीं है. राम जन्मभूमि के आंदोलन के बाद बीजेपी ने यह महसूस किया कि अकेले सरकार बनाना मुश्किल है और उसने पहली बार मुसलमानों को अपनी तरफ़ आकर्षित करने की कोशिश की. लेकिन आपसी अविश्वास की बुनियाद बहुत गहरी थी.
गुजरात के दंगों ने बीजेपी और मुसलमानों के बीच संबंध बनाने की इन शुरुआती कोशिशों को इतना तगड़ा धक्का पहुंचाया कि यह कड़ियां पहले से ज़्यादा बिखर
हाल के सालों में मुसलमानों ने बड़ी शिद्दत से यह महसूस करना शुरू किया है कि कांग्रेस, मुलायम सिंह यादव और लालू प्रसाद यादव जैसे नेता और उनकी पार्टियां उन्हें अपने चुनावी फ़ायदे के लिए महज़ वोट बैंक के तौर पर इस्तेमाल कर रही हैं. जबकि इनकी तरक्की और ख़ुशहाली में उन्हें कोई दिलचस्पी नहीं रही है.
विकल्प की समस्या
मुसलमानों के सामने सबसे बड़ी समस्या विकल्प की रही है कि वह अपना पारंपरिक जुड़ाव ख़त्म करके किसे वोट दें. बीजेपी ने भी इनकी तरफ़ जो हाथ बढ़ाने की कोशिश की तो वह भी बड़ी बेदिली से की.
बीजेपी की तरफ़ से मुसलमानों का समर्थन हासिल करने का कभी कोई गंभीर प्रयास नहीं किया गया. कभी मुसलमानों से संवाद करने का कोई रास्ता नहीं अपनाया गया. साथ ही बीजेपी चुनावी राजनीति और सरकारों में मुसलमानों को उचित प्रतिनिधित्व भी नहीं देती.
खुद मोदी व्यक्तिगत तौर पर एक मुसलमान विरोधी नेता माने जाते हैं.
मुसलमानों की नई नस्ल शिद्दत से यह महसूस कर रही है कि एक ऐसे वक्त में जब मोबाइल टेक्नोलॉजी, सोशल मीडिया की वजह से चुनाव और चुनावी विषय भी एक नए स्तर पर पहुंच रहे हैं तो मुसलमानों को अपने असुरक्षा वाले अहसास से निकलना होगा.
वह आम चुनावों को एक चुनौती नहीं बल्कि बेहतर तब्दीली के एक सुनहरे मौके के तौर पर देख रहे हैं. उन्हें पता है कि हिंदुओं के बाद भारत के 17 करोड़ मुसलमान इस मुल्क की दूसरी सबसे बड़ी बहुसंख्यक आबादी हैं.