
मैं यह प्रश्न इसलिए भी पूूछ रहा हूं, क्योंकि मैं मृदुभाषी करकरे को ‘सम्माननीय’ पुलिस अधिकारी के रूप में ‘जानता’ था, जिनके साथ मेरी कई बार ऑफ रेकॉर्ड लंबी बातचीत हुई थीं। 25 नवंबर 2008 को करकरे ने मुझे फोन करके कहा था कि वे ‘खुल के बोलना’ चाहते हैं। शिवसेना के मुखपत्र ‘सामना’ ने उन्हें ‘हिंदू विरोधी’ बताते हुए अभियान चला रखा

मालेगांव मामले में एनआईए के आरोप-पत्र में दावा किया गया है कि कम से कम दो महत्वपूर्ण गवाहों को कर्नल पुरोहित सहित अभियुक्तों के खिलाफ झूठे बयान देने के लिए बाध्य किया गया था। एनआईए और महाराष्ट्र एटीएस के आरोप-पत्रों में फर्क को ही कर्नल पुरोहित को जमानत देने का महत्वपूर्ण कारण बताया गया। 2011 में एनआईए को गहराई से जांच के अच्छे इरादे से मामला सौंपा गया। फिर भी छह साल बाद भी मुकदमा शुरू नहीं हुआ, अभियुक्त को जमानत देने का यह भी एक कारण था। इस बीच केंद्र में सरकार बदल गई। जहां हमारे सामने ऐसे गृहमंत्री थे जो ‘हिंदू आतंक’ के बारे में कुछ भी कह देते थे, अब वह व्यक्ति गृहमंत्री है, जो साध्वी प्रज्ञा की गिरफ्तारी के वक्त उसके साथ खड़ा हुआ था। जब अभियोग लगाने वाली एजेंसियों के वरिष्ठ अधिकारियों का ऐसा भिन्न रुख हो तो क्या जांच पक्षपातरहित और स्वतंत्र हो सकेगी?
सच यह है कि अत्यधिक ध्रुवीकृत राजनीतिक विमर्श ने आतंकवाद संबंधी लगभग हर बड़ी जांच पर असर डाला है। जहां कभी हमें कहा जाता था कि ‘अभिनव भारत’ जैसे दक्षिणपंथी गुट इस्लामी आतंक का मुकाबला करने के लिए उभरे हैं, अब लगता है हमें यह बताने की कोशिश है कि ऐसे आतंकी गुट यूपीए सरकार ने भाजपा व संघ परिवार को मुश्किल में डालने के लिए ‘निर्मित’ किए हैं। जहां हमें कभी ऐसे विस्तृत टेप दिए गए थे, जिनमें कर्नल पुरोहित और साध्वी प्रज्ञा शामिल थे (इसमें दर्ज बातचीत कई घंटों की थी), अब हमें बताया जा रहा है कि उन्हें हम पूरी तरह ‘बनावटी’ सूचनाएं मानें। गवाह अचानक मुकर गए और सरकारी वकील ने यह कहते हुए त्यागपत्र दे दिया कि 2014 के बाद एनआईए उनसे ‘धीमे’ चलने के लिए कह रही है। यह तो अचानक ऐसा हो गया जैसे सात लोगों की जान लेने वाला मालेगांव विस्फोट कभी हुआ ही नहीं था और यदि हुआ भी था तो गलत लोग पकड़ लिए गए हैं।
आप देखिए कि ऐसे देश में जिसका नेतृत्व आतंकवाद के खिलाफ ‘जीरो टॉलरेंस’ (बिल्कुल बर्दाश्त न करना) की बात करता है, वहां कैसी विचित्र स्थिति पैदा हो जाएगी। अब हमें 2007 में हुए समझौता बम विस्फोट का एकदम उलट वर्जन बताया जा रहा है। इसके पीछे लश्कर-आईएसअाई-सिमी की मिलीभगत थी या स्वामी असीमानंद जैसे संघ समर्थक इसमें शामिल थे? गुजरात का इशरत जहां मामला भी इसी प्रकार राजनीतिक लड़ाई में फंस गया है और ‘फर्जी मुठभेड़’ में हत्याओं के आरोपी पुलिस वालों को अब निर्दोष बताया जा रहा है और उनके साथ नायकों जैसा व्यवहार किया जा रहा है। फिर चाहे 7/11 के मुंबई ट्रेन धमाके हों, हैदराबाद का मक्का मस्जिद विस्फोट हो मूल प्रकरण तो स्थानीय मुस्लिमों के खिलाफ बनाया गया, जो बाद में दक्षणपंथी हिंदू गुटों तक पहुंच गया। देश में आतंकी प्रकरणों में सफलतापूर्वक मुकदमा चलाने का रेकॉर्ड बहुत खराब है। दुखद है कि हिंदू-मुस्लिम के पक्षपाती चश्मे से आतंकवाद को पेश करके देश के राजनीतिक नेतृत्व ने खतरनाक ढंग से राष्ट्रीय सुरक्षा के साथ समझौता किया है। अब उत्तरोत्तर स्पष्ट हो रहा है : या तो पूर्ववर्ती कांग्रेस-नेतृत्व वाली सरकार झूठ बोल रही थी अथवा मौजूदा सरकार अभियुक्तों को बचा रही है। आधिकारिक वर्जन को चुनौती देना अब ‘राष्ट्र-विरोधी’ कृत्य है, जिससे ऐसी तर्कसंगत बहस एक तरह से असंभव हो गई है, जिसमें तथ्यों को लगातार जारी मिथ्या प्रचार से अलग करके देखा जा सके।
इस सब में मेरे मित्र करकरे कहां ठहरते हैं? मृत व्यक्ति अपना बचाव नहीं कर सकते, इसलिए उम्मीद ही की जा सकती है उनकी कीर्ति को वे लोग दागदार नहीं बनाएंगे, जो असुविधाजनक सच का सामना नहीं कर सकते। एक पेशेवर पुिलस अधिकारी का ‘सम्मान’ दांव पर लगा है, इसलिए राज्य-व्यवस्था को साफ-सुथरा रवैया अपनाना चाहिए : या तो करकरे की जांच का ‘भंडाफोड़’ किया जाना चाहिए या उनके साथ मजबूती से खड़े होना चाहिए। राष्ट्रीय सुरक्षा पर राजनीतिक रस्साकशी खत्म होनी चाहिए।
पुनश्च : कर्नल पुरोहित को जमानत देने के कुछ दिन पहले दस अज्ञात मुस्लिम जेल में दस से ज्यादा साल बिताकर बाहर आ गए, क्योंकि 2005 के हैदराबाद बम विस्फोट मामले में उनका शामिल होना साबित नहीं किया जा सका। फर्क यह था कि इस बार ‘न्याय’ पर न शोरभरी प्राइम टाइम बहस हुई, न भावुक जश्न था, न राष्ट्रवादी नारे थे। सरल-सी बात है छोड़ दिए गए लोग दूसरे धर्म के थे।
वरिष्ठ पत्रकार
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