हत्यारे और रणबांकुरे होने में अंधेरे और उजाले का सा अंतर है .

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त्रिभुवन 

यह किसी देश, किसी समाज या किसी समुदाय के लिए निकृष्टतम दौर होगा अगर किसी मुसलमान की हत्या पर मुसलमानों को ही विरोध प्रदर्शन करना पड़े। दलितों की हत्या पर दलितों को ही गुस्सा दिखाना पड़े। हिन्दुओं के किसी मसले पर हिन्दुओं को ही बोलना पड़े। यह मानव सभ्यता का वाकई में बुरा दौर होगा अगर एक देश को ही अपनी समस्याएं दुनिया में गाते रहना पड़े।

यह अंधकार युग कहा जाएगा अगर हत्यारों का महिमामंडन होने लगे। चाहे वे कोई भी हों। हत्यारे हत्यारे ही होते हैं, चाहे वे दक्षिणपंथी हों या वामपंथी। वे इस दल से जुड़े हों या उस दल से। चाहे उनकी वेशभूषा किसी भी धर्म से जुड़ी हो या किसी सरकार या विचारधारा से।

हत्याएं अगर घृणित नहीं होतीं तो महाराणा प्रताप हल्दीघाटी के युद्ध की पहली सांझ के झुरमुटे में चार-छह सिपाहियों के साथ शिकार के लिए निकले मानसिंह की हत्या करने में देरी नहीं करते। यह उनके लिए सुनहरा मौक़ा था। लेकिन उन्होंने यह सलाह देने वाले को न केवल फटकारा, बल्कि ऐसा सोचने काे भी घृणित बताया। वीर पुरुष प्रताप बोले : मानसिंह से कल सुबह युद्ध के मैदान में मिलेंगे। हम युद्ध लड़ने वाले वीर पुरुष हैं। हत्यारे नहीं।

हत्यारे के समर्थक मानसिक रूप से बीमार और आत्मिक रूप से कलुषित होते हैं और रक्तार्चन करने वाले रणबांकुरों के समर्थक नीतिमान् कहलाते हैं।

युद्ध में मरने और मारने वालों के गौरवगान इसीलिए होते हैं, क्योंकि वे घृणा के लिए आयोजित होने वाली हत्याओं या नरसंहार के सबब नहीं होते। जिन शासकों ने कत्लेआम करवाए औरयुद्ध को वीरता से विरत करके लड़ा, वे इतिहास में घृणा के पात्र ही रहे।

युद्ध हत्याओं का व्यापार नहीं थे। वे देशों और सेनाओं की शक्ति के संतुलन के लिए लड़े जाने वाले सफलता के उस समय के मानदंड थे और उनमें नियमों की पालना होती थी। राजस्थान के इतिहास में किसी भी ऐसे युद्ध विजेता तक को सूरमा नहीं कहा गया, जिसने किसी की पीठ पर पीछे से वार किया। ऐसे लोगों को घृणित हत्यारे कहा गया और उनकी एक स्वर से निंदा की गई। वीरों ने जब-जब युद्ध लड़े, नियमों का पालन किया। शत्रु का धर्म कुछ भी हो, शत्रु की राष्ट़्रीयता कुछ भी, वीरों ने रणभेरियां बजाकर ही युद्धों का एलान किया। अगर सांझ ढली तो वापस खेमों में लौट गए और एक-दूसरे के यहां से भाेजन-पानी और दवा-दारू तक का अादान प्रदान किया करते थे। और अगले दिन फिर युद्ध लड़ते।

किसी बूढ़े, किसी बच्चे, किसी स्त्री और किसी विकलांग पर वार नहीं किया जाता था। युद्ध भूमि से भागते सैनिक पर हमला करने वाले को कायर कहकर कलंकित किया जाता था।

युद्ध हत्याओं का आयोजन नहीं थे। युद्ध युद्ध थे और युद्धों की एक संस्कृति थी। वीर लोग शौर्यशाली थे। वे घृणित हत्यारे नहीं थे। चाहे महाराणा प्रताप का धर्म अलग था और अकबर के एक सेनापति अब्दुलरहीम खानखाना का धर्म कुछ और था, लेकिन उनका बेटा जब खानखाना के परिवार की महिलाओं को बंदी बनाकर लाया तो महाराणा ने उसे उलटे कदम दौड़ाकर कहा कि इन्हें ससम्मान वापस छोड़कर आओ।

आप रावण को हर साल जलाते हैं। लेकिन क्या यह बात याद है कि युद्ध के मैदान में रावण के बेटे मेघनाद के तीर से लक्ष्मण मूर्च्छित होते हैं तो उन्हें पुनर्जीवित करने वाला वैद्य कौन था? वह सुषेण था और उसे रावण ने अपने शत्रु खेमे में भेजा था।

दयानंद जैसा साधु जिन दिनों इस्लाम, ईसाई और हिन्दू धर्म की मूर्खताअों के खिलाफ़ अलख जगा रहे थे तो उन्हें लाहौर, मुंबई और अजमेर तक में किस धर्म के किन लोगों ने सहयोग किया और उनका कितना सहयोग इस साधु ने किया, यह सोचने की बात है।

विवेकानंद के महान् गुरु रामकृष्ण परमहंस ने तो इस्लाम के माध्यम से ईश्वर सिद्धि प्राप्त करने की कोशिश की थी। कहा तो यहां तक जाता है कि वे एक बार इस काम में गोमांस भक्षण तक को तैयार हो गए थे। यह तथ्य हैं और बारीकी से अध्ययन करने वाले इन्हेंं जानते हैं।

घ़ृणा और उन्माद का दौर चलाने वाले इस देश के न भक्त हैं और न मित्र। वे शत्रुओं से भी ख़तरनाक़ लोग हैं। क्योंकि शत्रु सामने होकर वार करता है। ऐसे लोग घृणाओं से विष वल्लरियां सींचकर देश की धमनियों के रक्तप्रवाह को दूषित करते हैं।

भारत अगर परम वैभव पर पहुंचेगा तो राम की तरह त्याग, कृष्ण की तरह वीतरागिता, शंकर की तरह बौद्धिक युद्ध, बुद्ध की तरह अहिंसक भाव, महावीर की तरह अपरिग्रहिता और नानक की तरह अपौरुषेय मानवता के भाव से ही पहुंच सकता है।

भारत के भाल पर घृणा का कलंक नहीं, मानवीयता से ओतप्रोत संस्कृति और विवेकशीलता का चंदन टीका ही चाहिए।

1 COMMENT

  1. माननीय
    अख्तर जी

    आपका लेख “हत्यारे और रणबांकुरे होने में अंधेरे और उजाले का सा अंतर है” पढ़ कर बहुत ख़ुशी हुई की जहा नेता अपनी दुकानदारी चलाने के लिए कई तरह के हथकंडे अपना रहे है वही आंखे मुंद कर लोग उनपर विस्वास कर लेते है | श्रीमान आपका लेख ऐसे भटके लोगो को सही रह पे लेन के लिए सही रह दिखाने वाला लेख है | तथा नेताओ के मुखोटे को उजागर करता है |
    इसी तरह की पत्रकारिता की वर्तमान में जरुरत है |
    महेंद्र सिंह राव
    mansarao9252@gmail.com
    http://www.legendsofmewar.blogspot.in

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