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भारत मीडिया में पिछले दिनों में भारतीय जनता पार्टी(भाजपा) के विभिन्न नेताओं के बयान छाए रहे हैं.
लेकिन कई बार अपने बयानों के कारण विवादों में आ जाने वाले नेता अपने ही किसी पुराने बायन के उलट बात कर रहे होते हैं.
क्या यह संभव है कि ऐसा कोई ऐप बनाया जाए जो ख़ुद ब ख़ुद किसी नेता के नए बयान और पुराने बयान को आमने-सामने रख कर जनता के सामने पेश कर दे?

अगर राजनेताओं के बयान न हों तो अखबारों के पन्ने, न्यूज़ चैनलों की स्क्रीन, वेबसाइटों के पेज, सोशल मीडिया के स्टेटस की खाली जगहें और टॉक शो की खाली कुर्सियां कैसे भरी जाएंगी !
कोई नेता अगर एक हफ्ते में छह जगहों पर वही बयान देता है तो उसका हर बार एक ही बात रटना ऊब पैदा करता है.
यही बात उन वरिष्ठ पत्रकारों में सघन रूप में पाई जाती है जिन्हें इन नेताओं के कार्यक्रमों को कवर करना पड़ता है. ऐसे पत्रकार अक्सर कहते पाए जाते हैं कि इस धंधे में ‘उन्होंने कहा, उन्होंने आगे कहा, उन्होंने जोर देकर कहा’ के सिवा और कुछ ज्यादा बचा नहीं है.
हर पार्टी और राजनेता का आपस में घुलामिला एजेंडा है जिसे वह मीडिया के जरिए ज़्यादा से ज़्यादा लोगों तक पहुंचाना चाहता है.

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मीडिया प्रबंधकों की वर्कशॉप :
नरेंद्र मोदी, भाजपा, भारत, प्रधानमंत्री
चुनावों से पहले हर बड़ी पार्टी के मीडिया प्रबंधकों की वर्कशॉप में विशेषज्ञ यही बताते हैं कि वे कैसे तकनीकी, मीडिया हाउसों की आपसी स्पर्धा, राजनीतिक आग्रहों और सीमाओं का अपने पक्ष में इस्तेमाल करें.
पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी मीडिया के परंपरागत इस्तेमाल से संतुष्ट नहीं थे. उनके लिए काम करने वाले आईटी पेशेवरों और कॉरपोरेट के छवि प्रबंधकों ने ‘चाय पर चर्चा’ जैसे कार्यक्रमों के ज़रिए एक समांतर मीडिया खड़ा कर विकास पुरुष और भारत के उद्धारक की छवि आम लोगों तक पहुंचाने का सफल प्रयोग किया.
इस ऊब के बीच अचानक कोई विवाद खड़ा करने की क्षमता वाला बयान आ जाता है तो पत्रकारों को अचानक अपने पेशे की सार्थकता नज़र आने लगती है. इसके सबूत के रूप में न्यूज़ चैनलों में ब्रेकिंग न्यूज़ की चिप्पी नज़र आने लगती है.
ज़्यादातर पत्रकार अपने होने का अर्थ उस मौके का साक्षी होने और विवाद को लोगों तक पहुंचाने में अपनी भूमिका के बोध में तलाशते हैं.

विवादों का मौसम:
भारतीय राजनीति में फिर ऐसे ही विवादित बयानों का मौसम आ गया है जिसका असर चौराहों से लेकर सोशल मीडिया तक में दिखाई दे रहा है.
भाजपा सांसद साक्षी महाराज गांधी के हत्यारे नाथूराम गोडसे को देशभक्त होने का सर्टिफिकेट दे रहे हैं, भाजपा सांसद योगी आदित्यनाथ और यूपी भाजपा अध्यक्ष लक्ष्मीकांत बाजपेयी ताजमहल को शिवमंदिर बता रहे हैं, विदेश मंत्री सुषमा स्वराज गीता को राष्ट्रीय ग्रंथ घोषित करने की वकालत कर रही हैं, एक मंत्री साध्वी निरंजन ज्योति अपने ‘रामज़ादे…..’ वाले बयान से समाज को दो फिरकों में बांट कर देख रही हैं.

बयान के उलट बयान :
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) धर्मांतरण के प्रायोजित अभियानों को ‘घर वापसी’ बता रहा है, संघ के प्रमुख मोहन भागवत कह रहे हैं कि भारत में रहने वाला हर व्यक्ति हिंदू है, भाजपा के सांसद गिरिराज सिंह मोदी विरोधियों को देश छोड़ देने का फतवा जारी कर चुके हैं और यूपी के राज्यपाल रामनाइक अब अयोध्या में राममंदिर बनवाना चाहते हैं. सबसे ऊपर यह कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इनमें से ज़्यादातर बयानों से नाराज़ हैं, कुछ के लिए माफी मांग और मंगवा चुके हैं.
आप याद्दाश्त पर ज़ोर डालेंगे तो पाएंगे कि इन बयानों के पीछे न कोई वैचारिक प्रतिबद्धता है और न व्यक्तिगत आग्रह, ये अवसरवादिता के बेहतरीन नमूने हैं क्योंकि यही नेता ठीक इसके उलट बयान पहले दे चुके हैं.
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हिन्दुत्व की व्याख्याएँ :
साक्षी महाराज ने किसी और पार्टी में रहते हुए फर्रूख़ाबाद की एक सभा में भाजपा को गोडसे जैसे हत्यारों की पार्टी कहा था, भाजपा कई बार राममंदिर को अपने एजेंडे से बाहर कर चुकी है और आरएसएस के पास हिंदुत्व की कई व्याख्याएं हैं.
भाजपा और आरएसएस लगातार गोडसे से अपने संबंधों को छिपाते रहे हैं. लेकिन नाथूराम के भाई गोपाल गोडसे ने नाराज़गी जताते हुए 1994 में एक इंटरव्यू में कहा था कि नाथूराम ने आरएसएस के नेताओं को सज़ा से बचाने के लिए अपना संबंध उजागर नहीं किया था.

चेतना का स्तर:
ऐसे में इन बयानों पर विवाद का क्या मतलब है. नेता जानते हैं कि अभी जनता की चेतना का स्तर उतना नहीं है कि वह उनके अवसरवाद पर तंज से मुस्करा कर आगे बढ़ जाए. होता यह है कि ये मुद्दे लोगों के व्यक्तिगत आग्रहों और कुंठाओं के साथ मिलकर बहुत जल्दी बहसों और झड़पों में बदल जाते हैं और मक़सद पूरा हो जाता है.
यहां गौरतलब है कि ये बयान सरकार और अपने लेफ्टिनेंट अमित शाह के ज़रिए पार्टी और संगठन दोनों को अपनी मुट्ठी में रखने वाले आरएसएस के दुलारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की नाराज़गी के बावजूद धड़ाधड़ एक के बाद एक आ रहे हैं जिन्होंने विकास के मुद्दे पर चुनाव जीता था.

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विकास का मुद्दा ?
हवा का रूख देखकर राजनीति करने वाले अवसरवादी नेताओं के लिए नेतृत्व की मर्ज़ी ही कुतुबनुमा की डिबिया होती है, वे जानते हैं कि पार्टी लाइन के खिलाफ कुछ बोले तो तुरंत पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया जाएगा.
जाहिर है पूर्ण बहुमत की सरकार बना लेने के छह महीनों में ही विकास के मुद्दे को कोने में सरकाया जा रहा है, अब जनता का ध्यान भटकाने के लिए हर मुद्दे में राष्ट्रवाद की छौंक के साथ धार्मिक ध्रुवीकरण की संभावनाओं को टटोला जा रहा है.
अगर इनमें से कोई मुद्दा लोगों द्वारा लपक लिया जाता है तो चुनाव में किए गए लगभग असंभव किस्म के वादों को लोग भूल जाएंगे और पांच साल सरकार चलाना आसान हो जाएगा.

एक दिलचस्प प्रयोग
अमरीका में 2012 के चुनाव के समय दो राजनीति विज्ञानियों, डार्टमाउथ के ब्रैंडन नेहान और एक्सेटर यूनिवर्सिटी के रीफलर ने यह जानने के लिए एक प्रयोग किया कि क्या राजनेता वाकई झूठ बोलने और बयानों से पलटी मारने की कोई चिंता करते हैं.
उन्होंने नेताओं की कथनी-करनी की पड़ताल करने वाली एक वेबसाइट पॉलिटीफैक्ट से सक्रिय रूप से जुड़े राज्यों के 1200 विधायकों में से एक तिहाई को चिट्ठियां भेजीं कि उनके बयानों और आचरण की निगरानी की जा रही है जिसका असर उनके करियर पर पड़ सकता है.
रैंडम आधार पर चुने गए एक तिहाई विधायकों को चिट्ठियां भेज कर कहा गया कि वे राजनीति विज्ञान के एक प्रयोग का हिस्सा हैं जिसके तहत उनके बयानों की सच्चाई का अध्ययन किया जा रहा है.
लेकिन उन्हें यह नहीं बताया गया कि इसका मक़सद क्या है और क्या नतीजे होंगे. बाकी एक तिहाई को कोई चिट्ठी नहीं भेजी गई.
चुनाव के अंत में नतीजा यह रहा कि जिन्हें कोई चिट्ठी नहीं भेजी गई उन्होंने खूब झूठ बोला, जिन्हें सिर्फ प्रयोग की सूचना दी गई थी उनमें से 2.7 प्रतिशत ने और जिन्हें नतीजों की चेतावनी दी गई थी उनमें से सिर्फ एक प्रतिशत ने झूठ बोला. इस प्रकार निगरानी और पकड़े जाने के डर से झूठ बोलने की दर में पहले की तुलना में कमी पाई गई.

भारत का मुद्दा :
भारत में कहा जाता है कि यहां चुनाव मुद्दों पर नहीं जाति, धर्म और व्यक्तित्वों से जुड़ी भावनाओं के आधार पर लड़े जाते हैं, ऐसे में नेताओं का अवसरवाद भुला दिया जाता है.
यह बात पूरी तौर पर सही नहीं है क्योंकि दूसरे मसले भी प्रतिनिधियों के चुनाव में अहम भूमिका निभाते हैं. अब चुनाव प्रचार और सरकार की उपलब्धियों के बारे में सूचना देने का काम अधिकांश आबादी के हाथ में पहुंच चुके मोबाइल फोनों के ज़रिए किया जाना लगा है.
यदि कोई ऐसी ऐसा मोबाइल ऐप लोगों को सुलभ करा दिया जाए जिसके ज़रिए वे जान सकें कि किसी विवादित मुद्दे पर किसी नेता का पहले क्या रुख रहा है और वह उसके प्रति कितना गंभीर है तो लोग अधिक जागरूक होंगे, बहसें और झड़पें भावनात्मक के बजाय तथ्यात्मक और परिणामदायक हो सकती हैं.

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